खिलखिलाहटों के जो उपवन,
उगने को थे, पर कहाँ उगे?
मुस्कुराहटों के वो झुरमुट,
बनने को थे, पर कहाँ बने?
जो मिठास आना चाहती थी,
उस मिठास ने तोडा है दम,
तेरी अधीरता ही रे पगले,
मुस्कुराहटों पे हुई बेरहम.
आने को था जो प्रकाश,
तूने आने कहाँ दिया?
ढलने को था जो जो तिमिर,
उसे राह तूने कहाँ दिया?
पावन मित्रता का वो माधुर्य,
तुझको रास कहाँ आया?
मूढों के गुट में वो ओज,
तुझ मूढ़ को कब भाया?
पंखों को छूने की चाह में,
तूने विटप सारिका हीन किया,
तरुवर का वो गीत प्रिय,
तूने खग से छीन लिया,
अब सोच जरा तू ओ पगले,
तू किस रस्ते का राही था?
घटाघोप कालिख की रेखा,
तू अपने सुख का ग्राही था.
मैं :
ना परिंदों को उड़ाने चाह थी,
ना तितलियों का भागने की चाह थी,
मुस्कुराहटे तो मुझे भी भायी थी, रे मन,
मेरी तो उनमे ही खो जाने की चाह थी,
बस पतली पगडण्डियों थी,
संभल ना पाया मैं उस पल,
तुझे पता है रे, मेरे मन?
वो फिसलनों भरी राह थी!!!
पर एक बार गिरकर ही मैंने,
फिसलन का एहसास कर लिया,
डगमगाए क़दमों में मैंने,
अचल अडिग एहसास भर लिया.
ओ रे मन,
बस इतना कर दे,
मेरे मित्र को मुझ तक ला दे,
मेरी तरुवर की ख़ामोशी,
उसको बस एकबार सुना दे...
"एक माला है मेरे पास,
गुथे हुए हैं जिसमे मोती,
एक मोती जो गया छिटक है..
उसे सोच माला है रोती"
|| अभिषेक कौशिक ||
"एक माला है मेरे पास,
गुथे हुए हैं जिसमे मोती,
एक मोती जो गया छिटक है..
उसे सोच माला है रोती"
|| अभिषेक कौशिक ||